कविता: फूट

वाह रे हमर बखरी के फूट
फरे हाबे चारों खूंट
बजार में जात्ते साठ
आदमी मन लेथे सबला लूट |
मन भर खाले तेंहा फूट
खा के झन बोलबे झूठ
फोकट में खाना हे त आजा
उतार के अपन दूनों बूट
वाह रे हमर बखरी के फूट
फरे हाबे चारों खूंट |

लट लट ले फरे हे एसो फूट
राखत रहिथे समारु ह
पी के दू घूंट
चोरी करथे तेला तो
देथे गारी छूट
मिरचा अऊ लिमऊ ल बांधे हों
मारे झन कोनो मूठ
जतका खाना हे
खाले तेंहा फूट
अऊ नई खाना हे
त चल ते इंहा ले फूट
वाह रे हमर बखरी के फूट
फरे हाबे चारों खूंट |
Mahendra Dewangan
महेन्द्र देवांगन “माटी”
(बोरसी -राजिम वाले)
पंडरिया (कवर्धा)
मो नं-8602407353
Email-mahendradewanganmati@gmail.com

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3 Thoughts to “कविता: फूट”

  1. sunil sharma

    एक नंबर रचना माटी जी …बधाई हो

  2. Mahendra Dewangan Mati

    हमर रचना ल पसंद करेव एकर बर बहुत बहुत धन्यवाद भैया सुनील शर्मा जी |

  3. अजय अमृतांशु

    1 नं लिखे हाव माटी जी बधाई

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